मंगलवार, 15 अक्तूबर 2024

बाँके बिहारी

       मुझे कुछ पता नहीं था कहाँ,कैसे, कब जाना है । रात में अचानक नींद खुली तो मैं छटपटा कर उठ बैठी । ठीक ही तो कह रहे थे मैंने इतने वर्ष सांसारिक मोह- माया में गवाँ दिया। बगल में पतिदेव सोए थे उनको देखकर अनायास ही मुस्कुरा दी। आपने तो बहुत पहले ही मुझे सतर्क कर दिया था फिर मैं कैसे नहीं समझ सकी आपकी बात को। घड़ी देखी तो रात के तीन बज रहे थे। नींद आँखों से कोसों दूर थी। सपने में देखा दृश्य बार-बार याद आ रहा था। कोई भिखारन कह रही थी- "चलो प्रसाद लेने, यहाँ बाँके बिहारी स्वयं अपने हाथों से प्रसाद बाँटते हैं।" मुझे ऐसा लग रहा था जैसे कोई अदृश्य शक्ति मुझे अपनी ओर खींच रही है। सांसारिक मोह-माया का बंधन टूट रहा था। घर की सारी वस्तुएँ,सारे लोग मुझे बेगाने से लग रहे थे। पूरे घर में घूमकर घर की वस्तुओं पर नजर डालते हुए नहाने चली गयी। आज नहाने के बाद मंदिर में जाने का भी मन नहीं हुआ। ऐसा महसूस हो रहा था वह परमपिता परमेश्वर तो मेरे साथ है। 
     मैंने एक बैग में अपने दो जोड़ी कपड़े, दो चादर और कुछ जरूरत का सामान रख घर से निकलने लगी तो मेरी दृष्टि मेरी लिखी किताबों पर अटक गयी। अनायास से मुँह से निकल गया बाँके बिहारी यह तो माँ सरस्वती का वरदान था फिर भी किसी ने मुझे नहीं समझा। घर के लोगों को लगता है कि मेरा काम गवाने का काम है । अब मुझे इन किताबों से मोह हो रहा था इसलिए चलते-चलते मैंने अपनी पाँच किताबें एक पेन डायरी और मेज पर रखी स्वामी रामसुखदास के गीता प्रबोधनी भी उठाकर अपने बैग में रख लिया । मोबाइल में स्टेटस लगा दिया आध्यात्मिक यात्रा का शुभारंभ । मोबाइल टेबल पर छोड़ चंद रुपए ले घर से निकल गयी। सुबह के चार बजे थे ।बहुत दूर पैदल चलने के बाद मुझे एक ऑटो वाला मिला ।भैया- रेलवे स्टेशन चलोगे? हाँ बैठ जाइए।
जब रेलवे स्टेशन पहुँची तब देखा कि एक ट्रेन प्लेटफार्म नंबर एक पर खड़ी है। लोग ट्रेन से उतर रहे हैं ।स्टेशन पर काफी भीड़-भाड़ है। मैं भी रिजर्वेशन वाले डिब्बे में जाकर बैठ गयी। मुझे नहीं पता था कि मैं कहाँ जा रही हूँ । हरे कृष्णा का सुमिरन करते -करते कुछ देर में ही मुझे नींद ने अपनी आगोश में ले लिया । मेरी नींद खुली तो सुबह के दस बज रहे थे। गाड़ी बिल्कुल निर्जन, कोई व्यक्ति नहीं है । हरे कृष्णा, हरे कृष्णा, आपकी माया अपरंपार है कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया है ।
गाड़ी आउटर में खड़ी थी तो समझ नहीं पा रही थी कि यह कौन सा स्टेशन है। कुछ समझ नहीं पा रही थी इसलिए उसी गाड़ी में बैठी रही और गीता निकाल कर पढ़ने लगी । पढ़ते-पढ़ते कब नींद आ गई पता ही नहीं चला । नींद में फिर वही स्वप्न छटपटा कर उठ बैठी । मेरे सामने की सीट पर लोग बैठे थे मैं उन्हें पहचानने की कोशिश कर रही थी तभी टीटी आ गया । 'मैडम टिकट' । टीटी का संबोधन सुनकर चेहरे पर मुस्कान फैल गई यह सोचकर कि मैंने यह सांसारिक संबोधन का चोला उतार दिया है। उसने फिर कहा मैडम कहाँ जाना है?
 मथुरा की दो टिकट दे दीजिए। 
आपके साथ और कौन है ? बाँके बिहारी है न...। कहाँ बैठे हैं? यहीं मेरे साथ। तत्पश्चात टीटी इधर -उधर देखते हुए बिना कुछ पूछे ही टिकट बना दिया। टिकट लेकर मैं सोचने लगी प्रभु यह कौन सा खेल कर रहे हैं मेरे साथ ? मुझे कुछ पता नहीं है। किसी से भी कुछ बात करने की इच्छा भी नहीं हो रही है, न भूख है, न प्यास,बस हरे कृष्णा, हरे कृष्णा के अनवरत सुमिरन में ही आनंद है । सुमिरन करते-करते पता नहीं कब पलकें बोझिल होते -होते बंद हो गयी। 
   सुबह-सुबह नींद खुली तो देखा गाड़ी मथुरा स्टेशन पर खड़ी है। मैं आह्लादित हो गयी , मेरी खुशी का पारावार नहीं था ,अचानक दोनो हाथ जुड़ गए वाह रे! बाँके बिहारी ! आखिर अपनी शरण में बुला ही लिया आपने । गाड़ी से उतर कर पैदल ही चल पड़ी, ऐसा लग रहा था जैसे पैरों में पंख लगे हैं ।बहुत दूर तक चलने के बाद में बाँके बिहारी के मंदिर पहुँच गयी ।
 अब मुझे सपने वाला दृश्य याद आने लगा तब तक वह वृद्ध भिखारिन भी दिखाई दे रही थी , जिसके चेहरे पर सौम्य निश्छलता , चाँदी से चमकते सफेद केश ही उनके उम्र को बयाँ कर रहे थे , वो मुझसे कह रही थी -"चलो प्रसाद लेने बाँके बिहारी यहॉं स्वयं देने आते हैं ।" मैंने उनसे पूछा- 'प्रसाद मिल गया अम्मा।' मेरी प्रेम और करुणा से परिपूर्ण वाणी सुनकर उनकी आँखें नम हो गयीं।कहने लगी - मैंने रखा है तुम्हारे लिए बचा कर बेटा, आओ बैठो । बहुत दूर से आ रही हो न? देखो उस गली में आगे एक नल है, जाओ हाथ- मुँह धो लो । मैं अपना बैग लेकर अम्मा के बताए नल पर पहुँच गयी। चारों तरफ गंदगी पसरी थी फिर भी मुझे गुस्सा नहीं बल्कि आनंद आ रहा था। हमेशा टाइल्स वाले बाथरूम में नहाने वाली आज मैं खुशी-खुशी नल के पानी से नहा रही थी ।नहा -धोकर आई तो अम्मा ने इशारा किया -कपड़े वहाँ सुखा दो। आओ बैठो मेरे पास कहते हुए मेरा हाथ पकड़कर अपने पास बैठाकर असीम स्नेह से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहने लगी मैं कब से तेरा इंतजार कर रही थी बहुत देर कर दी आने में । हाँ अम्मा देर तो कर दी मैंने ।
अम्मा मैं बाँके बिहारी के दर्शन करके आती हूँ ।मंदिर में प्रभु की मूरत देख आँखों से अनायास ही बहुत देर तक अविरव अश्रु बहते रहे । बस मन में यही भाव आ रहे थे कि बहुत देर कर दी बाँके बिहारी यहॉं बुलाने में ।जब सारे गिले -शिकवे समाप्त हो गए तो मन शांत हो गया तब अम्मा के पास आकर बैठ गयी। उन्होंने बड़े प्रेम से मुझे अपना लिया कहने लगी कुछ चिंता मत करना परिवार और जीवन का, सब मोह- माया है ।बाँके बिहारी यहॉं तक बुलाए हैं तो वह आगे का भी रास्ता निकालेंगे, यह लो प्रसाद खा लो बिटिया और यह माला लो "ऊँ क्लीं कृष्णाय नमः " का जाप करो ,सब ठीक हो जाएगा । प्रसाद का आधा लड्डू खाते ही मन तृप्त हो गया । पूरा दिन अम्मा के साथ व्यतीत हो गया । रात मंदिर के बाहर चबुतरे पर ही सुखमय नींद आ गयी।
    प्रातः चार बजे उठकर, नहा-धोकर प्रसाद लेने के लिए लाइन में लग गयी । अरे ! यह क्या ...? यह तो टीवी सीरियल वाले श्री कृष्णा हैं, इनके हाथों से प्रसाद मिल रहा है मैं तो धन्य हो गई प्रभु । अम्मा बोली क्या कह रही हो यह मंदिर का पुजारी है। मैं अम्मा की तरफ देखकर मुस्कुरा कर देखती रही। प्रसाद रखकर जब मंदिर में दर्शन करने गयी तब मैंने पुजारी से कहा - 'बाबा मैं बाँके बिहारी की सेवा में कुछ करना चाहती हूँ ,कुछ काम हो तो बता दीजीएगा। वह मेरी तरफ आश्चर्यचकित भाव से देखकर कहने लगे- अच्छा बाँके बिहारी ने तुमको बुला ही लिया, अभी बैठो फिर बताता हूँ ।जब पूजा पाठ से निवृत हुए तब कहने लगे जहाँ प्रभु का प्रसाद बनता है वहाँ काम मिल जाएगा करना चाहोगी बिटिया ? हाँ बाबा , आपने बिटिया कहा है तो जो भी काम देंगे कर लूँगी ।तो चलो फिर मेरे साथ ।मैं उनके पीछे-पीछे चल पड़ी । वह एक छोटे से घर में ले गए जहाँ मेरा परिचय अपनी धर्म पत्नी से करवाया, जो बहुत ही कृषकाय और उम्रदराज थी। बाबा ने कहा- आज से बिटिया यही रहेगी, बाँके बिहारी ने तुम्हारी मदद के लिए भेजा है । अब अपने साथ रसोई घर में प्रसाद बनाने बिटिया को भी लेकर जाना।
     यहाँ रहते हुए तीन साल व्यतीत हो गए। मुझे कभी घर की याद नहीं आयी। मैं बाँके बिहारी में पूरी तरह से डूब चुकी थी। बाँके बिहारी का दिया काम लोगों की सेवा और साहित्य सृजन दोनों कर रही थी। हर दिन सुबह चार बजे नहा - धोकर लाइन में लग जाती प्रसाद लेने । बाबा कहते भी बिटिया तुम्हारा बनाया प्रसाद ही तो मंदिर में भोग लगाकर फिर बटता है तो क्यों वहाँ जाती हो लेने ,यहॉं प्रसाद की कोई कमी है क्या ? मैंने कहा- बाबा आप नहीं समझेंगे वहाँ बाँके बिहारी आते हैं प्रसाद बांटने ।
क्या...! तू सच कह रही है? हाँ बाबा, तभी तो रोज जाती हूँ।  
       तीन साल बाद मेरे घर वाले मुझे खोजते- खोजते यहाँ पहुँच ही गए। मैं हर दिन की तरह लाइन में खड़ी थी प्रसाद लेने के लिए, उस दिन थोड़ी देर हो गई थी इसलिए भीड़ कम थी। हर दिन प्रसाद लेकर मैं मंदिर में बाँके बिहारी के दर्शन करने जाती थी। दर्शन कर निकल ही रही थी तभी सामने खड़े बेटे ने मुझे पहचान लिया जोर से चिल्लाया मम्मी...मम्मी... और दौड़कर मेरे पास आकर बेटा- बेटी दोनों गले लग गए सब की आँखों में अविरल आँसू बह रहे थे। बेटी ने अपने आप को सम्भालते हुए कहा - 'मम्मी तुम हम लोग को छोड़कर क्यों आ गयी, कभी हमारी याद नहीं आयी?' बेटा जिसे मन बाँके बिहारी में लग जाता है उसका सांसारिक मोह- माया छूट जाता है और तुम्हारे पापा ने तो बहुत पहले ही कह दिया था मम्मी गँवाने का काम करती है मैं कमाने का। गँवाने शब्द जो है न, चुभ गया था हृदय में, मुझे लगा कि मैंने ऐसा क्या गवाँ दिया। सोचते- सोचते यही निष्कर्ष निकाल पायी कि मैं अपना जीवन व्यर्थ काम में गवाँ रही हूँ ।इस सांसारिक मोह-माया में फँसकर जहाँ मेरे कार्यों का कोई मूल्य नहीं है ।लिखना तो मेरे लिए सरस्वती का वरदान था हर कोई तो नहीं लिखता है न...; बस, मैं आ गई बाँके बिहारी की शरण में। मुझे माफ कर दीजिए, मैंने तो ऐसे ही कह दिया था ; अगले महीने बिटिया की शादी है आशीर्वाद देने नहीं चलेंगी? नहीं...। मम्मी, ऐसे कैसे तुम्हारे बिना मेरी शादी हो जाएगी, तुमको चलना पड़ेगा । वह रास्ता तो मैंने बहुत पीछे छोड़ दिया है बेटा,शादी के बाद तुम दोनों यहाँ आशीर्वाद लेने आ जाना बाँके बिहारी का। तभी बेटा बोल पड़ा मम्मी तुम रहती कहाँ हो? देखना चाहोगे । तीनों ने हाँ में सिर हिलाया। पहले बाँके बिहारी का दर्शन कर लो फिर चलते हैं। मेरे रहने की जगह देखकर तीनों की आँखों में आँसू आ गए। मेरे पति कहने लगे इतने बड़े घर की मालकिन इस छोटे से कमरे में रहती है । मैंने कहा -'कल प्राण निकल जाएगा तो यह भी यही छूट जाएगा।' अरे यह देखो, तुम लोग, मैंने यहाँ रहते हुए बहुत कुछ लिखा है,अब यह मैं तुम दोनों को सौंपती हूँ ,इसे छपवा देना। यह बाँके बिहारी का काम है और माँ सरस्वती का आशीर्वाद है, मेरा नहीं है कुछ भी नहीं । उन लोगों के बहुत मिन्नतों के बाद भी मेरा मन घर लौटने को नहीं हुआ । बेटी को इतना आश्वासन ही दे पायी कि बेटा इंतजार मत करना यदि बाँके बिहारी की मर्जी रही तो आशीर्वाद देने आऊँगी । हरे कृष्णा..हरे कृष्णा...।
डॉ.अनिता सिंह 
समीक्षक/उपन्यासकार 
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)



बुधवार, 28 अगस्त 2024

कांवड़ यात्रा

    श्रावण मास आरंभ होते हैं कांवड़ियों की कांवड़ यात्रा का भी शुभारंभ हो जाता है। कांवड़ियों की शिव के प्रति अटूट भक्ति देखकर ही मन में उनके प्रति श्रद्धा का भाव आना स्वाभाविक है। शिव भक्त अपने कंधों पर पवित्र जल का कलश लेकर पैदल यात्रा करते हुए प्रसिद्ध शिवलिंग तक पहुँचते हैं। एक दिन कांवड़ियों का समूह यात्रा के दौरान विश्रांति के लिए एक वृक्ष के नीचे ठहर गए। कावड़ यात्रा के दौरान न तो कलश को नीचे रख सकते हैं और न हीं जल कलश से गिरने पाए,इसका विशेष ध्यान रखा जाता है। एक कांवड़िया अपने कलश को संभालते हुए बड़ी सतर्कता और सावधानी से सबसे दूरी बनाकर बैठा ही था कि एक बूढ़ा व्यक्ति उसके पास आकर पानी पिलाने की याचना करने लगा। कांवड़िया ने जब उसे बताया कि यह जल हम शिवलिंग पर चढ़ाने के लिए लेकर जा रहे हैं बाबा ,इसलिए इसमें से नहीं पिला सकते। तब बूढ़ा व्यक्ति कहने लगा कि मैं बहुत दूर से आ रहा हूँ ;मुझे बहुत प्यास लगी है और अब तो मुझसे पानी पीए बिना चला भी नहीं जा रहा है और यहाँ आस-पास कहीं पानी भी नहीं दिखायी दे रहा है; कृपा करके मुझे थोड़ा पानी पिला दीजिए, भोले बाबा आप पर कृपा करेंगे । कांवड़िया कुछ देर तक असमंजस की स्थिति में सोचता रहा फिर उसने कहा लो बाबा थोड़ा जल पी लो । वृद्ध व्यक्ति ने जल पीना आरंभ किया तो कावड़िये के कलश का पूरा जल पी गया और उसके चेहरे की तृप्ति का भाव देखकर कांवड़िया वहीं से भोले बाबा के प्रति नतमस्तक हो प्रणाम करने के लिए आँख बंद किया तब देखा है कि वह बूढ़ा व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि साक्षात भोले बाबा हैं और उसकी कावड़ यात्रा वहीं पूरी हो जाती है ।

डॉ.अनिता सिंह 
उपन्यासकार/समीक्षक 
बिलासपुर (छ.ग.)

सोमवार, 17 जून 2024

प्रेम की पाती


कैसे हो तुम? मै भी क्या सवाल पूछ रही हूँ ,हमेशा की तरह तुम्हारा वही जवाब होगा ठीक हूँ ।बहुत दिनों से तुम्हारी खबर नहीं मिली तो पत्र लिख रही हूँ ।मैं हर वक्त तुम्हारी खामोशियों को पढ़ने की कोशिश करती हूँ ,लेकिन पढ़ नहीं पाती हूँ । मुझे इस बात का दुख है कि तुमने मुझे बिना कारण बताए मुझसे सुरक्षित दूरी बना ली। मुझे अब यह दूरी असहनीय लग रही है। मैं यह तो नहीं जानती कि तुमने ऐसा क्यों किया लेकिन यह सोचती जरूर हूँ कि मनुष्य जिससे प्रेम करता है कई बार उसे खोने के डर से एक सुरक्षित दूरी बना लेता है। कई बार जिसे हम आदर देते हैं, उसके समक्ष अपने को सही साबित करने की कोशिश करते हैं । इस तरह के तर्कों से इन दिनों में खुद को समझाने की कोशिश कर रही हूँ।
      कुछ ऐसी बातें हैं जो तुमसे नहीं कर पाती हूँ तो स्वतः ही करती हूँ तब मुझे उस पर बहुत खीज होती है । जब मैं किसी काम के लिए अनुमान लगाती हूँ मगर मेरा अनुमान गलत हो जाता है तब मुझे एहसास होता है कि तुम्हारे बारे में मैं कैसे सही सिद्ध हो सकती हूँ ।
   मैं अपनी गलतियों के लिए कोई सफाई नहीं देना चाहती हूँ ,न हीं इस रिश्ते के लिए तुम्हें कोई दोष देती हूँ ।हमारा रिश्ता किसी जरूरत या स्वार्थ की बुनियाद पर नहीं खड़ा है । हम तो संयोग से मिल गए थे। यह सब कुछ ऐसे विस्मय और सम्मोहन में हुआ कि हम एक दूसरे की आँखों में देखते हुए कब दिल में उतर गए पता ही नहीं चला। हम एक ऐसी बस में सवार हो गए थे जिसकी मंजिल अलग - अलग थी,लेकिन इस यात्रा का कड़वा सच यह है कि तुम जिसे सिर्फ दोस्त समझते रहे वह तुम्हें दिल से चाहने लगी थी, तुमसे बेइंतहा मोहब्बत करने लगी थी । तमाम बुद्धिवादी तर्कों के बीच आज भी मेरे हृदय में तुम्हारी स्मृतियाँ कुछ इस तरह से सुरक्षित है जैसे किताबों में रखा शुष्क गुलाब का फूल।
    हर रिश्ते की एक उम्र होती है लेकिन मुझे यह नहीं पता था कि मेरा रिश्ता अल्पायु है जो चंद महीने में ही खत्म हो जाएगा। हाँ, मैंने कुछ गलतियाँ जरूर की थी लेकिन इतनी बड़ी नहीं थी कि तुम मुझसे इतनी दूरी बना लो। मैं जब अकेले में अपनी त्रुटियों के बारे में सोचती हूँ तो उसमें हर जगह तुम्हें खोने का डर बना रहता है । मुझे पता है कि मेरी गलतियाँ इतनी बड़ी भी नहीं है जिसे तुम माफ न कर सको ,मेरी गलतियों को लेकर तुम्हारे मन में भी कोई मलीनता नहीं होगी, ऐसा मैं सोचती हूँ ।
        तुम मेरे सच्चे दोस्त थे, एक ऐसे दोस्त जिसके सामने किसी भी विषय पर बात करने में मुझे कोई संकोच नहीं था । दिन भर के कठिन परिश्रम के बीच में भी तुम्हारी एक मुस्कान से मैं एक नयी जिजीविषा से भर उठती थी। तुम्हारा मेरे जीवन में होना एक शांत निर्झर का होना था जो शोर नहीं करता बल्कि अपने शीतलता से मेरे जीवन के मार्ग को आह्लादित रखता है । जीवन की यात्रा में तुम्हारे साथ मेरे वही शांत निर्मल और निस्वार्थ क्षण जुड़े थे। तुम्हारी स्नेहिल छाया में मैं निश्चिंत हो सुस्ता सकती थी। मेरे और तुम्हारे बीच कोई अनुबंध नहीं था इसलिए मैं तुम्हारी किसी बात से असहज नहीं होती थी। कई बार ऐसा हुआ कि तुम बातचीत करते समय हमेशा यह एहसास करा जाते थे कि तुम्हें परेशान देखकर मैं भी परेशान हो जाता हूँ, फिर तुम्हें मुझसे पहले ही इस बात का कैसे आभास हो चुका था कि यह मेल- मिलाप जल्द ही गहरी विश्रांति को प्राप्त होने वाला है । तब भी न जाने कैसे तुम्हारे चेहरे पर अंकित अपने भविष्य को नहीं पढ़ पायी। आज भी जब मैं अपनी इस अक्षमता पर सोचती हूँ तब मेरा दिल बहुत उदास हो जाता है ।
        मेरा पागलपन आज भी तुम्हारा बेसब्री से इंतजार करता है। मैं यह बात अच्छी तरह से समझती हूँ कि तुम मुझसे नाराज नहीं हो,बस मैं तुम्हारी स्मृतियों का हिस्सा कभी नहीं बन पायी, मेरे लिए यह दुखद बात है। यदि तुम मुझसे नाराज होते तो मैं तुम्हें एक कविता लिखकर थमा देती फिर मैं पूरी तरह आश्वस्त हो जाती कि कविता पढ़कर तुम मान जाते। मगर परिस्थितियाँ विपरीत हो गई और तुम मुझसे दूर हो गए ।अब मैं चाह कर भी तुमसे बात नहीं कर पा रही हूँ।भले हम दोनों के बीच में मिलों दुरियाँ हैं फिर भी हम एक दूसरे से मन के भाव पढ़ते रहेंगे। फिलहाल मेरे पास जो तुम्हारी तस्वीर है उससे ही संवाद करती हूँ परंतु जब कोई जवाब नहीं मिलता है तब मैं रो पड़ती हूँ।
         जानते हो जब तुम्हारी यादें मुझे बहुत बेचैन करती थी तब मैं बहुत उदास हो जाती हूँ और उन लम्हों में मैने कुछ कविताएँ लिखी हैं । मैं चाहती हूँ कि उन कविताओं को तुम पढ़ो । तुम्हारी याद में लिखी हुई कविताएँ सच्चे प्रेम को ही प्रदर्शित करती हैं ।दरअसल इन कविताओं के जरिए अपनी भावनाओं को तुम्हारे प्रति व्यक्त किया है तथा मेरे दिल में तुम्हारे लिए कितना प्यार है वह तुम्हें दिखाना चाहती हूँ ।मैं चाहती हूँ कि उन कविताओं को पढ़ने के बाद तुम अपना प्रिय गीत गुनगुना मेरी उदासी दूर कर दो । यह सच है कि मैं अब भी तुमसे भावनात्मक रूप से जुड़ी हुई हूँ इसलिए दिल से भाषा में खत लिख रही हूँ। यदि तुम इसे समझने में सफल रहे तो मैं इसे अपना सौभाग्य समझूँगी ।तुम्हारा और मेरा रिश्ता तो उस नीम की पेड़ की तरह था जो सीख भले कड़वी दे पर तकलीफ में ठंडी छाँव देता है ।जीवन- पथ पर चलते - चलते थक चुकी हूँ, पल भर को ही तुम्हारे शीतल छाँव की जरूरत है मुझे । सुनो.., तुम सुन रहे हो न... । मैं चाहती हूँ कि एक बार हम मिलकर थोड़ी देर मौन बैठे रहें, शायद मैं अपने पुराने दोस्त को तुममे खोजने में सफल हो जाऊँ ।इस वक्त मुझे तुम्हारी आवश्कता है। मुझे इतना तो तुम पर यकीन है कि मुझे जरूरत में देखकर तुम बगैर कोई सवाल किए मेरे साथ दो पल अवश्य साझा करोगे।
 तुम्हारे साथ के भरोसे में जीवन की हर कठिनाई को पार कर सकती हूँ ,इसलिए तुम्हारा आना मेरे लिए अनिवार्य हो गया है।
  तुम्हारी अनुपस्थिति ने मेरे मन में एक भय पैदा कर दिया है । मैं बहुत थक चुकी हूँ, मैं तुमसे मिलकर अपने अंदर बैठे शंका का निवारण चाहती हूँ और मुझे विश्वास है कि तुम मुझे भयभीत, निराशा और हारा हुआ देखना कभी पसंद नहीं करोगे ।इसी विश्वास के सहारे मैंने अपने उसी मित्र को पुनः आवाज दी है जिसने कभी मुझसे कहा था- "ऐज ए बेस्ट फ्रेंड मैं आपके साथ हूँ।" मुझे आज भी तुम्हारे साथ की जरूरत है ।मुझे उम्मीद है कि मेरी भावनाओं को समझते हुए एक बार मुझसे जरूर मिलोगे तथा यह भी उम्मीद करती हूँ कि हम दोनों के बीच जो गलतफहमी की दीवार खड़ी है वह भी ढह जाएगी।
 शेष मिलने पर ......
तुम्हारी चिर प्रतीक्षा में ......
सस्नेही राधा


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