गुरुवार, 30 नवंबर 2017

मुक्तक

   माँ  तुम  मेरी  माँ   हो,
   मुझे  आशीष  दिया करो।
   जग की उलझन  भूल  सभी,
   मेरे उर(हृदय)में रहा  करो।
                 डॉ. अनिता सिंह

मुक्तक

सच और झूठ की पाठशाला अजीब है ।
सच और झूठ का भी अपना नसीब है ।
देख हैरान हो जाती हूँ दोनो का व्यवहार,
मौन रहकर भी सच दूर और झूठ करीब है ।
                           डॉ. अनिता सिंह

मुक्तक

नदान दिल तुझे समझा लूँ तो चैन आए ।
उनकी बेरूखी पर आँसू बहा लूँ तो चैन आए ।
उनके जुल्मों सितम का क्या शिकवा करूँ,
एक बार उन्हे गले लगा लूँ तो चैन आए ।
                              डॉ. अनिता सिंह

बुधवार, 29 नवंबर 2017

हौले- हौले

                     हौले- -हौले
                 ************
हौले -हौले से मेरे दिल में उतरने लगे तुम।
अजनबी होकर भी अपना लगने लगे तुम।

निहारती हूँ हर पल तेरे आगम का पथ,
फिर मुझे देख क्यों राह बदलने लगे तुम।

खामोश नज़रे तेरी सब कुछ बयाँ कर देती हैं,
फिर क्यों नजरें  मिलाने से बचने लगे   तुम ।

तेरे चंद अल्फाज़ मुझ पर कर जाते हैं जादू ,
फिर मुझे देख क्यों खामोश रहने लगे  तुम।

तड़पाती हैं  हर पल तेरी खामोशियाँ मुझे,
मेरी चाहत को स्वार्थ कहने लगे  तुम।

रहते  हो मेरे दिल की धड़कनो मे  हमेशा,
फिर क्यों  मुझसे दूर रहने  लगे  तुम   ।

जागती हूँ   हर  रात  तेरी    याद  में ,
अब सुकून की नींद सोने लगे तुम  ।

मैने तो सिर्फ  प्यार की एक नज़र मांगी थी,
फिर क्यों मुझसे नफरत करने  लगे तुम।
                               
                           डॉ. अनिता सिंह

धीरे - धीरे

अब मैं धीरे-धीरे बुझने के लगी  हूँ।
करती नहीं अब किसी से बात ।
सुनती नहीं जीवन का राग ।
करती नहीं किसी की तारीफ ,
क्योंकि अब मैं----------------
मार दिया मैने अपना स्वाभिमान
नहीं करती मैं अपनी मदद
सिमट गयी मेरी खूबसूरती
दिखने लगी हूँ मैं बदसूरत
क्योंकि .........................
करने लगे हैं सब मुझसे नफरत
नहीं करते लोग अब मेरी तारीफ
बन गयी हूँ अपनी आदतों की गुलाम
नहीं करती अब कोई नया काम
क्योंकि_------------------------
सब कुछ छूट गया पीछे
जिसे रखा था जकड़कर
नहीं देख पाती हूँ सुनहरे ख्वाब
डरती हूँ ख्वाबों को सामने देखकर
क्योंकि_-----------_-----------
पढ़ती हूँ सिर्फ किताबें
 जीवन का रास्ता ढूढने
लेकिन कुछ भी नहीं मिलता है
तब हो जाती हूँ निराश
क्योकि...........................

         डॉ.अनिता सिंह

विलोम शब्द

आस्तिक- नास्तिक ईश्वर के प्रति अहसास है।
अमीरी-गरीबी जीवन की परिस्थितियाँ  हैं  ।
अच्छा -बुरा व्यक्ति का विचार है  ।
अपना - पराया संसार  की जकड़न ।
अनुराग -विराग मोह-माया और  त्याग है।
अमर-मर्तय जीवन के प्रति  अहंकार।
सुख-दुख जीवन के विपरीत भाव।
लाभ-हानि व्यक्ति की स्थितियाँ  हैं।
शुभ -अशुभ व्यक्ति का विश्वास है।
उत्थान-पतन कर्मो का परिणाम  है।
दुर्जन -सज्जन  व्यक्ति का संस्कार है।
जन्म-मृत्यु व्यक्ति का भाग्य है।
निंदा-स्तुती ईर्ष्या और  तृप्ति है।
सत्कार -दुत्कार  व्यक्ति  की पहचान है।
अभ्यान्तर-वाह्य किसी को पाने की  तड़प है।
आसक्त -अनासक्त प्रेम की पीड़ा का परिणाम है।
अनुकूल -प्रतिकूल परिस्थितियाँ लोगों  की पहचान है।
दोस्त - दुश्मन हर जन्म में साथ- साथ हैं।
प्रश्न - उत्तर व्यक्ति को कर देता निरूत्तर।
आदर- अनादर व्यक्ति के स्वभाव  की बात है।
आदि-अनादि वो ईश्वर  निराकार है।

                                   डॉ. अनिता  सिंह
                                   

“कृष्णा "

हे मेरे कृष्णा!
कब मैं तेरी राधा बन गयी
मुझे पता ही नहीं चला ।
कब तेरी बंशी की धुन
मेरे हृदय में उतर गयी
जान ही नही पायी ।
कब तेरी मीठी मुस्कान
मेरे हृदय की धड़कनो में समा गयी ।
कब तेरी कमल नयनों का जादू
मुझ पर चल गया पता ही नहीं चला ।
कितना कठिन है राधा बनना,
राधा बनकर तेरे प्रेम में तड़पना
और तेरा मुस्कराकर चले जाना।
यह जानते हुए भी  कि
तुम किसी और के अमानत हो ।
मेरे कभी नहीं बन सकते
फिर भी टूटकर तुम्हे चाहना ।
आजीवन तेरी चाहत में
तड़पना और आँसू बहाना ।
अब समझ आया
क्यों हर स्त्री सीता बनना चाहती है।
सीता की तरह पतिब्रता बनकर
जीना आसान है ।
राधा बनकर कृष्णा तेरे
प्रेम के विरह में जलना
तो सिर्फ राधा ही जान सकती है।
मैने तो तुम्हे दिल से चाहा था कृष्णा
हर जन्म में चाहती रहूँंगी.........।
तेरे साथ बिताए सुखद पलों
को दिल से संजोती हूँ ।
तुम्हारे हाथों के स्पर्श ने
मेरे आत्मा के एकांत क्षणों में
अपने वश में कर लिया है और
मेरे हृदय में मीठास की जो
मदिरा उडे़ल दी है ...........
उसी के साथ हर युग में
राधा बनकर जीती रहूँगी ।
तुम्हारे लौटने के इंतजार में
कृष्णा ...........................??
            डॉ.अनिता सिंह

लौटकर आना ...........

मैं लौटकर आना चाहती हूँ तुम्हारे पास  ।
मुझे यकीन है तुमसे मिलकर,
मैं भूल जाऊँगी तुम्हारे दिए आघात।
भाव शून्य हैं जो तेरी निगाहे,
उन निगाहों में जगाना चाहती हूँ जीवन की आस।

मैं निहारूँगी जब जानी-पहचानी तेरी नजरों 👀 को,
तब मेरी अश्रुधारा में धुल जाएगी गिले-शिकवे की बात।
जब मैं तुम्हारा स्पर्श  करूँगी,
एक अलग ही दुनिया में खुद को पाऊँगी तुम्हारे साथ।
कोई स्वार्थ नही है इस रिश्ते में,।
तभी तो तुम आ जाते हो मेरे ख्वाबों में हर रात ।

जिस तरह  रेत का स्पर्श करती हैं लहरें ,
उसी तरह तुम मुझसे दूर हो जाते हो हर बार।

बची रह जाती है  सिर्फ तेरीअनुभूति,
स्वप्न  सा है  मेरे लिए तेरे आलिंगन का संसार।

                                डॉ. अनिता सिंह

“मैं और मेरी माँ"

मैं और मेरी माँ का रिश्ता अटूट ।
जिसमें नहीं कोई डाल सकता फूट ।

माँ की ममता का मीठा अहसास।
कर जाता मुझे हरदम  उदास  ।।

काश ! मैं बाँट सकती माँ का दर्द ।
दुखों को उठा लेती बनकर हमदर्द ।।

समझा पाती सबको उनकी पीडा़ ।
उनके अरमानों को देती कोई दिशा ।।

उनके चेहरे पर ला सकती खुशियाँ ।
बन करके उनकी अच्छी बिटिया ।।

तमन्ना है मेरी हर रात हो उनकी दिवाली ।
हर दिन  मे  हो  होली    की      गुलाली ।।

हर   शाम हो   उनकी  सुरमयी ।
हर   सुबह  हो उनकी सतरंगी ।।

मैं और मेरी माँ रहते हरदम साथ ।
उनकी हाथों में रहता सदैव मेरा हाथ ।।
         
                             डॉ.अनिता सिंह
                             बिलासपुर (छ. ग.)

मेरी जरुरत हो

मान लिया मैने कि तुम करते हो मुझसे,
नफरत बेहिसाब ।
तुझे मिल गया है किसी और का साथ,
पर मैं कैसे करूँ यह एतबार।

कैसे भूलूँ  तेरी बातें,
कैसे भूलूँ सर्दी की राते
कैसे ना करूँ तेरा इंतजार
कुछ पल तो तुने बिताए थे  मेरे साथ।

नहीं भूलती तेरे प्रथम स्पर्श के अहसास की बात को।
तेरे और मेरे बीच होने वाली तकरार की बात को।

तुम्हें मिल गया किसी और का साथ।
मेरे साथ है मेरी तनहाई और तनहा रात ।
 
तुम मेरे लिए  देवता की मूरत हो।
तुम अभी भी मेरी जरुरत  हो।

 
क्या करूँ मुझे तो भूलती ही नहीं तेरी सूरत है।
मरने के लिए भी मुझे  तेरी बाहों की जरूरत है।

                            डॉ. अनिता  सिंह

आँखों का नूर

उम्मीद की  किरण हो तुम  तुझे जीतकर दिखाना है।
सीखने के  हर हुनर को तुझे   सीख कर दिखाना है।
मंजिल  की ऊँची राहों पर तुझे  चढ़कर दिखाना है।
तुझमें है  जितनी  प्रतिभा उससे निखरकर दिखाना है।
तुझमे है  इतनी  शक्ति उसे  बिखेरकर दिखाना है।
अपनी  क्षमता  से  आगे  तुझे  बढ़कर दिखाना है।
 हो तुम बहुत केबिल काबलियत सिद्धकरके बताना है।
भारत के हो सितारे  तुम्हें  कुछ करके दिखाना है।
माता पिता के हो आँखों के नूर तुम्हें रोशनी बनकर दिखाना है।

वृद्धाश्रम

ऐसा क्या हुआ कि सबने मुझे छोड़ दिया ।
पाला था जिसे लाड से इतना,
उसने ही दिल तोड़ दिया  ।
परिवार से ही  खुशियाँ थी ,
पर परिवार ने ही मुँह मोड़ लिया ।
कहाँ गए संस्कारों के मोती,
क्यों सबने उसे बिखेर दिया ।
कहाँ रह  गयी परवरिश में कमी,
जो अपनो ने ही छोड़ दिया  ।
जहाँ बसती थी खुशियाँ हर दिन ,
वह निकेतन क्यों सबने तोड़ दिया ।
जिनका भगवान के बाद दुजा स्थान ,
उन्हें क्यों वृद्धाश्रम में ढकेल दिया ।
बना छत्र छाया यह वृद्धाश्रम ,
जिसने टूटे दिलों को जोड़ दिया ।

                                  डॉ.अनिता सिंह

मंगलवार, 28 नवंबर 2017

दर्पण

ऐ दर्पण!
लोग कहते हैं कि
तू झूठ नहीं बोलता।
लेकिन तुम केवल
अर्धसत्य हो।
कयोंकि तुम तो सिर्फ
तन को प्रतिबिम्बित करते हो।
मन को नहीं ।
काश! तुम खूबसूरत, बदसूरत
मन में भेद कर पाते।
तुम ईमानदार होते हुए भी
बेईमान क्यों हो?
तुम्हारी ईमानदारी यह है कि
तुम मुझे वैसा ही दिखाते हो
जैसी मैं हूँ।
किन्तु बेईमान इसलिए हो कि
तुम सिर्फ बाहरी सौन्दर्य को दिखाते हो।
मेरे आन्तरिक सौन्दर्य को नहीं।
काश! तुम उन्हें
मेरे आन्तरिक सौन्दर्य को
दिखा पाते तो,
आज वह मेरे होते,
किसी और के नहीं।

डॉ. अनिता सिंह
बिलासपुर (छ. ग.)

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