शनिवार, 10 अक्तूबर 2020

प्रसून



     प्रसून

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यह कैसा आकर्षण है तेरा प्रसून ।

बार- बार निहारती हूँ

हर्षित करती है तेरी सुंदरता ।

बंद पलकों से भी

महसूस करती  हूँ तेरी सुषमा ।

स्पर्श करती हूँ

तेरी मखमली कोमलता ।

खिला- खिला मनभावन  है

तेरा मुस्काता रूप ।

तुम तो रूपसी हो

धरा के श्रृंगार स्वरूप ।

अलग-अलग है रूप तुम्हारा

सदियों की पहचान पुरानी है ।

सतरंगी रंगों से सुसज्जित

सुरभि जानी पहचानी है ।

कहूँ कहाँ तक तेरी महिमा

तू सृष्टि की अनिद्य सौंदर्य निराली है ।

कोशिश करती हूँ पढ़ने की

पर  तू उलझाती  जाती  है।

गुम हो जाती  हूँ  तेरी  सुंदरता  में

तू उलझी  पहेली बन जाती है ।

भौरों को मकरंद मिले

तुझे तितली भी देख हर्षाती हैं ।

कवि हृदय की कविता बन

तू उर  में पलती जाती हो।

चित्रकार की कूची से

कैनवास पर सजती  जाती  हो।

प्रेमी के प्रिय की सौगात बन

तुम  इठलाती- इतराती  हो ।

देवालय की प्रतिमा पर भी तो

तुम अपना ही  अधिकार जताती हो।

वीरों   की मृत शैया  पर आकर

तुम भी तो शोक मनाती हो ।

हे  प्रसून! तुम ऐसी हो कि

  सबके मन को भाती हो ।

डॉ.अनिता सिंह 



       



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