प्रसून
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यह कैसा आकर्षण है तेरा प्रसून ।
बार- बार निहारती हूँ
हर्षित करती है तेरी सुंदरता ।
बंद पलकों से भी
महसूस करती हूँ तेरी सुषमा ।
स्पर्श करती हूँ
तेरी मखमली कोमलता ।
खिला- खिला मनभावन है
तेरा मुस्काता रूप ।
तुम तो रूपसी हो
धरा के श्रृंगार स्वरूप ।
अलग-अलग है रूप तुम्हारा
सदियों की पहचान पुरानी है ।
सतरंगी रंगों से सुसज्जित
सुरभि जानी पहचानी है ।
कहूँ कहाँ तक तेरी महिमा
तू सृष्टि की अनिद्य सौंदर्य निराली है ।
कोशिश करती हूँ पढ़ने की
पर तू उलझाती जाती है।
गुम हो जाती हूँ तेरी सुंदरता में
तू उलझी पहेली बन जाती है ।
भौरों को मकरंद मिले
तुझे तितली भी देख हर्षाती हैं ।
कवि हृदय की कविता बन
तू उर में पलती जाती हो।
चित्रकार की कूची से
कैनवास पर सजती जाती हो।
प्रेमी के प्रिय की सौगात बन
तुम इठलाती- इतराती हो ।
देवालय की प्रतिमा पर भी तो
तुम अपना ही अधिकार जताती हो।
वीरों की मृत शैया पर आकर
तुम भी तो शोक मनाती हो ।
हे प्रसून! तुम ऐसी हो कि
सबके मन को भाती हो ।
डॉ.अनिता सिंह
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