रविवार, 14 अक्तूबर 2018

पंचतत्व

तुम क्षिति हो
तभी तो जड़ बनकर
समा गये हो
मेरी दिल की गहराइयों में।

तुम जल हो
तभी तो डूबा गए हो
अपने प्यार के
अथाह सागर में।

तुम आग हो
तभी तो जला गए हो
अपनी पीड़ा में।

तुम आकाश हो
तभी तो फैल गए हो
मेरी जिंदगी में
ठंडी छाँव बनकर।

तुम हवा हो
तभी तो मेरी हर श्वास में
समाहित हो गये हो
संगीत बनकर।

डॉ. अनिता सिंह
14/10/18

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